विशेष प्रतिनिधि
नई दिल्ली। दुनिया की जाने भी दें तो किसानों का देश माने जाने वाले भारत में कल से लेकर आज तक जितना निर्मम दोहन हर तरह से किसानों का हुआ/किया गया उसकी अन्यत्र मिसाल मिलना दुर्लभ है। क्या व्यापारी, क्या नेता, क्या सरकार, क्या विपक्षीदल, क्या बुद्धिजीवी, क्या खिलाड़ी यानी जिसका मौका लगा उसी ने किसान का दोहन किया।
और तो और हम सभी रोजाना अन्नदाता का दोहन करने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते। अपने खेत से जब सब्जियां लेकर किसान कस्बे/शहर में आता है तो उससे हम किस कदर मोलभाव करते है बताने की जरूरत नहीं है। और यदि कुछ खरीद भी लेते हैं तो उससे बिना मिर्चा, धनिया मुफत में लिये संतुष्ट नहीं होते।
क्या हममें से किसी की हिम्मत किसी दुकानदार से कोई सामान खरीदते समय इतना मोल-तोल करने की होती है? क्या कोई सामान मुफत में मांगने की कल्पना भी कर सकते है?
सरकारों की निगाह में तो किसान सबसे मुलायम व सुलभ चारा रहा है। नाना प्रकार से किसानों का निर्मम दोहन स्वयं सरकारों ने किया है। अतीत की जाने भी दे तो आजादी के बाद भी सरकारों ने जितना संरक्षण देश के उद्यमियों/व्यापारियों को दिया यदि उसका आधा भी किसानों को दे दिया होता तो भारत अर्थ व्यवस्था की दृष्टि से कब का दुनिया का सरताज बन गया होता। आज जीडीपी को लेकर किसी अर्थशास्त्री को इतनी माथा पच्ची न ही करनी पड़ती।
खैर अब देश का अन्नदाता भी काफी हद तक जागरूक हो चला है। यह बात दीगर है कि उसके रास्ते अभी भी उतने सपाट नहीं है कि वो तेजी से निर्विघ्न व सरपट दौड़ सके।
अभी भी कभी उसकी पीठ पर बैठकर, कभी शरण लेकर, कभी उसकी आड़ में उसे ही ठगा जाता है। उसका ही शोषण भी किया जाता है। आज यदि मोदी सरकार उनके हित के लिये नये कृषि कानून लेकर आई है तो उससे ऐसे विरोध की किसी को कल्पना तक नहीं थी। अव्वल तो इस विरोध में देश के सभी किसान शामिल नहीं है और जो है भी या तो वे नये कानूनों को समझ नहीं पाये हंै या फि र समझकर भी न समझ बने हुये है। पूरे आंदोलन की अगुवाई कर रहे पंजाब के किसान पूरी तरह राजनीति के चंगुल में है और राजनेताओं के इशारे पर चल रहे हैं। इसका सीधा सा कारण पंजाब में कांग्रेस की सरकार का होना है और अप्रत्यक्षत: उसकी मंशा अकाली दल के साथ-साथ भाजपा को शिकस्त देना है।
आंदोलन में अपनी-अपनी भूमिकाओं को लेकर किसान नेताओं का एकमत न हो पाना कम गौर तलब नहीं है। मंगलवार के भारत बंद को लेकर ये सभी किसान नेता एक मत नहीं हो पाये तो इसके निहितार्थ भी यही है।
देश के किसान नेताओं को समझना होगा कि उनके चाहने न चाहने पर जिस तरह लगभग सारे विपक्षीदल उनके आंदोलन में घुस गये उसी तरह खालिस्तानी समर्थक, आईएसआई के कथित एजेन्ट भी आंदोलन में सेंध लगाने में जुटे हुये हैं।
अभी भी समय है देश के समझदार किसान नेता राष्ट्रघातियों से सर्तक हो जाये वे। मोदी सरकार पर भरोसा करके उसके बनाये नये कानून का पूरी तरह परीक्षण कर लें। उनके परिणामों को देख लें। यदि वे उनके हितों के प्रतिकूल सिद्ध होते है तो भविष्य में आंदोलन करने से भला उन्हे कौन रोक सकेगा। और यकीनन मानियें तब आपके पास सरकार को कानूनों की कमियां बताने के लिये आधार व तर्क होगा।
आप देश के अन्नदाता थे, हैं और रहेगें। आपकी शान से देश की शान है। पर आप अपने लक्ष्य में तभी सफ ल होंगे जब आप अपने भले बुरे की समझ के साथ स्वविवेक से निर्णय लेने की पहल करेंगे।