तो कल कोई 'थू Ó भी नहीं करना चाहेगा!
राजनीति में वोट का खेल न तो नया है और न ही अनुचित। पर जब तक यह खेल मर्यादा की सीमाओं में बंधा रहा तब तक तो इसे समाज ने स्वीकारा पर जैसे ही यह खेल मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लंाघने लगा तब इस पर उंगुलियां ही नहीं उठने लगीं वरन् ऐसा करने वाले नेताओं, दलों की भद्द भी पिटने लगी।
कांग्रेस ने 'वोट का खेलÓ अर्से तक खेला। पर उसकी सधी रणनीति के चलते लम्बे समय तक लोगों को उसके खेल के निहितार्थ का पता ही नहीं चला। और जब तक अर्थ समझ में आता तब तक काफ ी हद तक अनर्थ हो चुका था।
कांग्रेस सरकार की विधिक उपज 'धर्मनिर्पेक्षÓ राजनीति की आड़ में उसने (कांग्रेस) समाज में अलगाववाद का जो विष घोला उसके चलते ही सपा, बसपा, तृणमूल जैसे राजनीतिक दलों का उदय हुआ। और फिर ऐसे दलों ने राजनीति में तुष्टीकरण की सारी हदें पार कर दी। ऐसी पार्टियों को न केवल जबरदस्त राजनीतिक लाभ मिला वरन् इन्होने 'धर्मनिर्पेक्षÓ की जनक व कुशल खिलाड़ी कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया।
विडम्बना देखिये कि कभी देश की राजनीति में एकछत्र राजनीति करने वाली कांग्रेस आज कहां खड़ी है! सपा व बसपा के पैर भी काफ ी हद तक उखड़ चुके हंै। तृणमूल के खंभे भी दरकने व हिलने की स्थिति में आ पहुंचे है। वामपंथी दलों का हाल बेहाल है तो दक्षिण में एआईडीएमके, डीएमके व टीडीपी की इमारतेें भी जर्जर होती जा रही है। जम्मू-कश्मीर में नेंका, पीडीपी पर भी ग्रहण लग चुका है और भविष्य डांवाडोल दिखने लगा है।
ऐसा सिफ र् और सिफ र् इसलिये हुआ कि इन सभी ने तुष्टीकरण का जमकर खेल खेला। यकीनन अधिसंख्या ने जातिपात व धर्म के नाम पर सत्ता की मलाई काटी तो अनेक ने क्षेत्र वाद के नाम पर।
जनसंघ की कोख से निकली भाजपा के रूप में मिले मजबूत विकल्प ने तुष्टीकरण की राजनीति की जो जड़े खोदना शुरू की उसके नतीजे सामने हैं। मुस्लिम सम्प्रदाय व इनके पैरोकारों तथा हिमायती राजनीतिक दलों के घोर विरोध व एड़ी चोटी का जोर लगाने के बावजूद यदि भाजपा देश में एकछत्र राज स्थापित करने की दिशा में निरंतर व तेजी से आगे बढ़ती जा रही है तो यह राजनीति में छद्म धर्म निर्पेक्षता की ही पराजय का प्रमाण व धर्मनिरपेक्ष दलों की लगातार पोल खुलने का नतीजा है।
हेठी व निर्जलता की हद तो यह देखिये कि तुष्टीकरण के खेल में पूरी तरह नंगा होने के बावजूद 'वेÓ सबक सीखने को तैयार नहीं है। यदि ऐसा न होता तो कोराना से मुक्ति के लिये भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा ईजाद की गई वैक्सीन पर सपा के टेक्नोक्रेट मुखिया अखिलेश यादव उंगुली न उठाते और उसे भाजपाई वैक्सीन बताकर शिखर छूने वाली देश की वैज्ञानिक मेधा का मजाक न उड़ाते। उनके एक सिपहसालार ने सरकार पर कोरोना वैक्सीन के बहाने लोगों को े नपुुंंशक बनाने का आरोप मढ़कर स्पष्ट कर दिया कि उन्हे न ही राष्ट्रहित से मतलब है और न ही जनहित से। इन्हे तो किसी भी तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता चाहिये।
अखिलेश यादव व उनकी जुंडली भूल रही है कि मुस्लिम समाज भी अब किसी पार्टी का अंधभक्त नहीं रह गया है और न ही उसे भटकाना ही आसान रह गया है। कभी उनकी रीढ़ रहे यादव जाति का भी मोह भंग होता जा रहा है। सपा के खास नामचीन पोषक तत्वों की योगी सरकार ने जिस तरह कमर तोड़नी जारी रखी है उससे भी यदि अखिलेश यादव ने सबक नहीं सीखा तो उन्हे एक और चुनावी पराजय के लिये तैयार रहना ही होगा।
कोरोना वैक्सीन को लेकर कांग्रेस के स्वनाम धन्य शशि थरूर, जय राम रमेश, राशिद अल्वी जैसे नेताओं ने भी अखिलेश की राह पर चलने में देर नहीं लगाई। हालांकि अभी तक उनके आका ने उनकी पीठ तो नहीं थपथापाई है पर उन्होने सरकार के अंधविरोध का अपना काम तो कर ही दिया है। हो सकता है देर-सवेर राहुल गांधी भी वैक्सीन पर सवालियां निशान खड़े कर दें।
महज सरकार विरोध के नाम पर ऐसे दलों की यदि ऐसी ही राष्ट्र व जनविरोधी कारगुजारियां जारी रही तो कल शायद इनके नाम पर कोई 'थूÓ भी नहीं करना चाहेगा।