तो इनके मुंह क्यों सिले हुये हैं?


संसद के उच्च सदन राज्य सभा में सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सदन में उपस्थित पूर्व प्रधानमंत्री डॉ० मनमोहन सिंह के सामने उनके ही बयानों का हवाला देते हुये कहा 'आदरणीय मनमोहन सिंह जी ने किसानों को उपज बेचने की आजादी दिलाने और भारत को एक कृषि मार्केट बनाने की मंशा जतायी थी। वो व्यापक कृषि सुधारों के पक्ष में थे।Ó प्रधानमंत्री ने पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार का हवाला देते हुये कहा कि शरद पवार जी ने अपने समय में कृषि सुधारों की वकालत की थी। 

सवाल यह है कि आखिर सदन में मौजूद डॉ० मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के बयान पर तत्काल न भी सही देर रात तक भी कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त की। जो कांग्रेस सरकार तीनों नये कृषि कानूनों का लगातार यह कहकर विरोध कर रही है कि उनसे किसान तबाह हो जायेगें, उसका स्पष्टीकरण देने का इससे अच्छा मौका कांग्रेस के पास और हो भी क्या सकता था। क्योकि सदन में उसके वरिष्ठ नेता व पूर्व प्रधानमंत्री स्वयं मौजूद थे। 

साफ  है कि कांग्रेस किसानों की आड़ में सिर्फ  और सिर्फ  प्रधानमंत्री मोदी व उनकी सरकार को नीचा दिखाना चाहती है। 

ऐसा ही हाल पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार का भी दिखा। उन्होने भी प्रधानमंत्री के बयान पर सफ ाई  नहीं दी । सफ ाई दे भी नहीं सकते क्योकि सभी को पता है कि उन्होने कृषि मंत्री रहते हुये अपने कार्यकाल में कृषि सुधारों पर बार-बार बल दिया था। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इन बातों में दम है कि कांग्रेस सरकार में कृषि सुधारों पर पूर्व प्रधानमंत्री व पूर्व कृषि मंत्री करना तो बहुत कुछ चाहते थे पर वे ऐसा कर नहीं पाये और आज जब उनकी सरकार (मोदी सरकार) उनके अधूरे कार्यो को पूरा कर रही है तो वे मुंह सिले हुये हैं। 

माना कि डॉ० मनमोहन सिंह में कूब्बत नहीं है कि वो अपने जूनियर आका राहुल गांधी के बयानों पर टिप्पणी कर सके। पर वो सीनियर आका श्रीमती सोनिया गांधी को अकेले में समझा तो सकते हैं कि राहुल सहित पार्टी के नेताओं का कृषि सुधारों का विरोध कतई कांग्रेस के हित में न है न होगा।

कांग्रेस के आका भूल रहे हैं कि देश की जनता को सब याद है मौका आने पर वो सबूत ही नहीं उसका मजा चखाने में भी पीछे नहीं रहती। 

अब बात आती है शरद पवार की। आखिर पवार साहब की क्या मजबूरी है कि अब वे भी कृषि सुधार कानूनों से पल्ला झाडऩे में लगे हंै। उस पर जो रपटें आ रही हैं वो कतई ठीक व तर्क संगत मालूम पड़ती हैं। कहा जा रहा है कि किसान बनकर वो व उनकी बेटी तथा संगी साथी जो फ ायदें उठा रहे है वे नये कृषि कानूनों से वंचित ही नहीं होगें, उनकी पोल भी खुल जायेगी।

कहां तो यहां तक जा रहा है कि पहले श्री पवार को यह पता ही नहीं था कि कृषि सुधारों से उनकी स्वयं की गर्दन भी फ ंस सकती है पर जब उन्हे सच का पता चला तो उन्होने खुद ही इन कानूनों से बचना शुरू कर दिया था और यही कारण था कि प्रधानमंत्री डॉ० सिंह भी चाह कर कुछ नहीं कर सके थे। 

ऐसी ही कहानी अकाली दल के अगुवाकार बादल परिवार की है वे भी पंजाब के बड़े किसानों में प्रमुख स्थान रखते हैं। नये कृषि कानूनों के लागू होने के बाद उनकी कमाई पर लगाम लगनी स्वाभाविक है। एमएसपी के बल पर मंडियों पर एकाधिकार स्थापित कर माल काटने वाले बादल परिवार को भी जब लगा कि नये कृषि कानून तो उनका ही खेल बिगाडऩे वाले है तो उन्होने भी नये कृषि कानूनों का विरोध करना शुरू कर दिया। पूरा देश आज तक यह नहीं समझ सका व नहीं समझ पा रहा है कि आखिर तीनों कृषि सुधार कानूनों के लागू हुये बिना उन्हे किसानों के लिये अहितकर कैसे बताया जा रहा है। 

जब सरकार बार-बार कह रही है और प्रधानमंत्री श्री मोदी ने सोमवार को भरे सदन में आश्वस्त किया कि नये कानूनों को आजमाइयें, फ ायदें न हो तो बतायें, फि र से उनमें बदलाव व सुधार किये जायेगें तो भी विपक्षी दल व किसानों के संगठन कानूनों की वापसी की ही रट क्यों लगाये हुये है?

विपक्षीदलों व किसान नेताओं को समझ लेना चाहिये कि उनके लिये यही बेहतर होगा कि अब वे आंदोलन को खींचने की बजाय नये कृषि कानूनों का परिणाम देखें। यदि वास्तव में वे कानून किसानों के हितों के विपरीत हो तो सरकार के सामने उनकी खामियों को रखें। और सरकार न सुने तो आंदोलन का बिगुल बजा दें। नि:संदेह पूरा देश साथ देगा।